Sunday 13 November, 2011


रेल किराया वृद्धि को लेकर भारी पशोपेश में रेलमंत्री 

नयी दिल्ली : रेलमंत्री श्री दिनेश त्रिवेदी आजकल बड़ी पशोपेश में हैं. रेल किराए बढ़ाए जाने को लेकर उन पर चौतरफ़ा दबाव पड़ रहा है. रेलमंत्री पर यह दबाव वित्त मंत्रालय, योजना आयोग और रेलवे बोर्ड के बाबुओं तथा रेलवे के मान्यता प्राप्त श्रम संगठनों की तरफ से पड़ रहा है, जो कि रेल किरायों में कम से कम 30% की बढ़ोत्तरी अविलम्ब चाहते हैं. परन्तु केंद्र में सत्ता की प्रमुख भागीदार तृणमूल कांग्रेस की मुखिया एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और वास्तविक रेलमंत्री ममता बनर्जी नहीं चाहती हैं कि डीजल-पेट्रोल की बढ़ी कीमतों का पुरजोर विरोध करने और इस मुद्दे पर सरकार से समर्थन वापसी तक की घोषणा कर डालने के बाद रेल किरायों में वृद्धि का ठीकरा उन पर और उनकी पार्टी पर फोड़ा जाए. इसलिए योजना आयोग, वित्त मंत्रालय और रेलवे बोर्ड के बाबुओं के भारी दबाव के बावजूद वह श्री त्रिवेदी को रेल किराए बढ़ाने की अनुमति नहीं दे रही हैं. रेलवे बोर्ड के तमाम बाबू लोग भी यह मानते हैं की ममता बनर्जी की सहमति मिले बगैर किराए बढ़ाना न तो रेलवे बोर्ड और न ही केंद्र सरकार के वश की बात है. 

यह सर्वज्ञात है कि रेलवे के असीमित संसाधनों का (दुरु) उपयोग करके ममता बनर्जी ने वामपंथियों से पश्चिम बंगाल में अपनी चिरप्रतीक्षित सत्ता हासिल की है. उन्हें यह खूब अच्छी तरह पता है कि पश्चिम बंगाल में कीमतें बढ़ने और खासतौर पर रेल किराए बढ़ने पर बंगाली भद्रलोक में कितना जबरदस्त आक्रोश पैदा होता है. इसीलिए बात-बात पर सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा करके उसे ब्लैकमेल करने वाली ममता बनर्जी के लिए रेल किराए बढ़ाने की अनुमति देना आसान नहीं होगा. ज्ञातव्य है कि डीजल-पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों पर सरकार से समर्थन की घोषणा करके ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री से एक तरफ रेलवे में अपने मनमुताबिक महाप्रबंधकों की पोस्टिंग करा ली है, तो दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल के लिए केंद्र सरकार से 19000 करोड़ रु. का विशेष पैकेज हासिल कर लिया है. 

रेलवे बोर्ड के कई अधिकारियों का स्पष्ट कहना है कि ममता बनर्जी की हरी झंडी के बिना रेलमंत्री श्री दिनेश त्रिवेदी रेल किराए बढ़ाए जाने के मामले में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं. हालाँकि करीब चार महीने पहले रेल मंत्रालय का कार्यभार सँभालने के बाद से श्री त्रिवेदी कई मंचों पर कह चुके हैं कि रेलवे की वित्तीय हालत बहुत ख़राब है. यही बात वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी भी कई बार कह चुके हैं. जबकि योजना आयोग ने बिना रेल किराए बढ़ाए किसी प्रकार की योजनागत राशि की मंजूरी देने से मना कर दिया है. वित्तमंत्री और योजना आयोग दोनों का मानना है कि रेल किरायों में अविलम्ब वृद्धि की जानी चाहिए, क्योंकि रेलवे की वित्तीय हालत सुधारने का इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है. योजना आयोग का तो यह भी मानना है कि रेल किरायों का एक स्थाई मेकेनिज्म बना दिया जाना चाहिए, जिससे तेल एवं बिजली की कीमतों में वृद्धि होने के बाद उसी अनुपात में रेल किराए स्वतः बढ़ा दिए जाएं. 

रेलवे बोर्ड के अधिकाँश अधिकारियों का यह भी मानना है कि तेल और ऊर्जा की कीमतों में बढ़ोत्तरी अब एक सामान्य बात हो गई है, जबकि यात्रियों की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए रेलवे की लागत और रख-रखाव तथा चल-अचल परिसंपत्तियों में लगातार वृद्धि करनी पड़ रही है. उनका कहना है कि रेल किरायों को तेल और ऊर्जा की कीमतों में बढ़ोत्तरी से जोड़ने के बजाय रेल किराए में प्रतिवर्ष एक औसत वृद्धि का एक स्थाई तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए. इस सबके अलावा उनका यह भी मानना है कि अब बहुत हो चुका, अब रेलवे का राजनीतिक इस्तेमाल बंद होना चाहिए और इसे स्वतंत्र रूप से एक वाणिज्य परिवहन संस्थान के तौर पर चलने के लिए खुला छोड़ दिया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इसका मतलब यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वे रेलवे के निजीकरण की बात कह रहे हैं. 

रेल अधिकारियों का कहना है कि आम जनता यानि यात्रियों से रेल किराए बढ़ाए जाने पर रायशुमारी करने की बात ही बेमानी है, क्योंकि कोई भी भारतीय आदमी स्वतः कभी अपनी जेब पर बोझ नहीं डालना चाहता, यह इस देश की सर्वसामान्य मानसिकता है. उनका यह भी कहना था कि आम आदमी को भी यह मालूम है कि पिछले 10 सालों से रेलवे के किराए नहीं बढ़े हैं, इसलिए अब वह भी इनके बढ़ाए जाने पर सहमत हैं. उनका कहना था कि यात्री को बेहतर सहूलियतें चाहिए, अगर वह किराया बढ़ाकर नहीं देगा, तो उसे यह सहूलियतें कैसे मिल पाएंगी, यह भी वह समझता है, इसलिए वह बढ़ा हुआ रेल किराया देने के लिए खुश-ख़ुशी तैयार है. अधिकारियों का कहना था कि गत 10 वर्षों में रेल की परिचालन लागत करीब 25 से 30 प्रतिशत बढ़ गई है, जबकि गत वित्तवर्ष में रेलवे को यात्री किरायों की मद में लगभग 25000 करोड़ रु. का घाटा हुआ है, जो कि चालू वित्तवर्ष में बढ़कर करीब 35000 करोड़ रु. हो जाने का अनुमान लगाया गया है. हालाँकि उनका यह भी कहना था कि रेलमंत्री अपनी रायशुमारी भले ही कर लें, मगर इस मामले में अंतिम राय तो उन्हें कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग से ही लेनी पड़ेगी. 
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विवेक सहाय, पीएमओ, डीओपीटी, 


सीवीसी और रेलवे बोर्ड को राहत 


चार-चार विजिलेंस मामले पेंडिंग होने के बावजूद पीएमओ, डीओपीटी और सीवीसी की अंदरूनी अंडरस्टैंडिंग के तहत विवेक सहाय को पहले मेम्बर ट्रैफिक और बाद में सीआरबी बनाए जाने के खिलाफ 'रेलवे समाचार' द्वारा दाखिल की गई जनहित याचिका (पीआईएल) को दिल्ली हाई कोर्ट के नए चीफ जस्टिस श्री ए. के. सिकरी और जस्टिस श्री राजीव सहाय की बेंच ने 2 नवम्बर को ख़ारिज कर दिया. इससे न सिर्फ विवेक सहाय को, बल्कि पीएमओ, डीओपीटी और सीवीसी को भी भारी राहत मिल गई है. हालाँकि कोर्ट ने इनमे से किसी को भी किसी भी प्रकार से दोषमुक्त नहीं किया है, और न ही याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई विपरीत टिप्पणी की है, और न ही कोई पेनाल्टी लगाई है. परन्तु जिस ग्राउंड पर यह याचिका पूर्व चीफ जस्टिस श्री दीपक मिश्र और जस्टिस श्री संजीव खन्ना की पीठ ने दाखिल (एडमिट) की थी, उसे नजरअंदाज करके और याचिकाकर्ता के वकीलों की पूरी बात और बहस को सुने बिना या संज्ञान में लिए बिना जिस तरह से कोर्ट ने यह याचिका मात्र दो मिनट में ख़ारिज कर दी, वह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. कोर्ट का कहना था कि सम्बंधित अधिकारी रिटायर हो गया है और को-वारंटो का मामला नहीं बनता है, जबकि सम्बंधित अधिकारी के निकट भविष्य में रिटायर हो जाने के ग्राउंड पर यह याचिका कोर्ट ने दाखिल ही नहीं की थी, बल्कि यह याचिका तो कोर्ट ने इस ग्राउंड पर एडमिट की थी कि भविष्य में वरिष्ठ एवं योग्य अधिकारियों को दरकिनार करते हुए और विजिलेंस मामले पेंडिंग रहते हुए किसी अधिकारी को उपरोक्त उच्च पदों पर प्रमोट न किया जा सके, इस बारे में कोर्ट द्वारा दिशा-निर्देश दिए जाने के ग्राउंड पर यह याचिका एडमिट की गई थी. तब इसकी विस्तृत सुनवाई किए बिना और अपेक्षित दिशा-निर्देश जारी किए बिना इस याचिका को मात्र दो मिनट में ख़ारिज कर दिया जाना वास्तव में ही दुर्भाग्यपूर्ण है. अब इसका परिणाम यह होगा कि रेल मंत्रालय के बाबुओं और निहितस्वार्थी राजनीतिज्ञों का गठजोड़ अब और ज्यादा निरंकुश हो जाएगा.  इसका ताज़ा उदाहरण  श्री राजीव भार्गव  का मामला है,  जिन्हें प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2008 - 09 के जीएम पैनल में पुनर्स्थापित किए जाने के बावजूद रेलवे बोर्ड के कुछ बाबुओं और राजनीतिज्ञों ने अपने निहितस्वार्थवश दरकिनार करके रख दिया है. 

उल्लेखनीय है कि पिछली तारीख में माननीय जजों ने याचिकाकर्ता के वकीलों द्वारा सीवीसी और पीएमओ तथा डीओपीटी के अबतक जवाब दाखिल न किए जाने पर सवाल उठाए जाने पर नाराजगी जताते हुए उनके वकीलों को अपने जवाब अगली तारीख से पहले कोर्ट में दाखिल करने और इस मामले में को-वारंटो क्यों नहीं लागू हो सकता, इस पर कोर्ट को संतुष्ट करने का आदेश दिया था. पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्र और न्यायाधीश श्री संजीव खन्ना की पीठ ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार यह मामला भी को-वारंटो, (रिटायर्मेंट के बाद भी नियुक्ति ख़ारिज हो जाने), का है. इस पर रेलवे के वकील श्री वेंकटरमणी ने कहा था कि यह मामला को-वारंटो का नहीं है, तब विद्वान न्यायाधीशों ने कहा था कि अगली तारीख में वह कोर्ट को संतुष्ट करें और यह भी स्पष्ट करें कि इस मामले में को-वारंटो क्यों नहीं लागू हो सकता है? इस बात का भी वर्तमान पीठ ने कोई संज्ञान नहीं लिया. इसके अलावा इस मामले में प्रधानमंत्री से फ़ाइल पर 'सब्जेक्ट टू विजिलेंस क्लियरेंस' लिखवाए जाने से लेकर चार दिनों की राष्ट्रीय छुट्टियों के दौरान सीवीसी का विजिलेंस क्लियरेंस मैनेज किए जाने और उसी दिन 28 दिसंबर 2009 को रात को 8 बजे तत्काल नियुक्ति आदेश जारी कर दिए जाने, इसके ठीक 23 दिन बाद 20 जनवरी 2010 को सीवीसी द्वारा पेंडिंग विजिलेंस मामलों की जाँच रिपोर्ट से संतुष्ट न होने और अगले 15 दिनों में जाँच करके नई जाँच रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहकर विजिलेंस क्लियरेंस वापस ले लिए जाने तथा मार्च 2010 को आरटीआई में दिए गए जवाब में सीवीसी द्वारा सम्बंधित मामलों में जाँच पेंडिंग होने की जानकारी दिए जाने, नियमानुसार प्रापर विजिलेंस क्लियरेंस के बिना नियुक्ति प्रस्ताव में सम्बंधित अधिकारी का नाम भी नहीं डाले जा सकने की प्रक्रिया आदि-आदि तमाम महत्वपूर्ण तथ्यों को भी कोर्ट ने अपने संज्ञान में लेना जरूरी नहीं समझा.  यह सीधा-सीधा तिकड़मबाजी और रेलवे बोर्ड के बाबुओं एवं राजनीतिज्ञों के भ्रष्ट गठजोड़ का साफ़-साफ़ मामला था, इसके अलावा यह मामला पी. जे. थामस की सीवीसी पद पर हुई विवादास्पद नियुक्ति के समकक्ष का मामला भी था, जिससे केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री एक बार फिर से विवादों में घिर सकते थे.  तथापि दुर्भाग्यवश माननीय न्यायाधीशों ने इन  तमाम  अत्यंत  महत्वपूर्ण  तथ्यों पर समुचित संज्ञान न लेकर  इस भ्रष्ट व्यवस्था  को सुधारना  जरूरी नहीं समझा,  यह इस मामले का अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है. 

दो नवम्बर की तारीख के दिन कोर्ट के सामने रेलवे बोर्ड के वकील जिस तरह चहक रहे थे, जबकि पिछली तीन तारीखों में कोर्ट के सामने उनकी आवाज भी नहीं निकल रही थी, बल्कि तब तो उन पर तैयारी करके न आने, पिटीशन पढ़कर न आने और रेलवे बोर्ड द्वारा उन्हें उचित फीडबैक न दिए जाने, याचिकाकर्ता द्वारा अपनी पिटीशन में पहले ही सम्बंधित अधिकारी के 30 जून को रिटायर हो जाने की बात लिखे जाने जैसी कोर्ट की फटकार पड़ रही थी, और इसके साथ मामला बोर्ड पर आते ही पीठ का जो रवैया नजर आया, वह कुछ और ही तरफ इशारा करता है. मगर यही तो इस देश और इसकी संपूर्ण व्यवस्था की मज़बूरी है कि जहाँ वास्तव में गंभीरतापूर्वक ध्यान दिए जाने की जरूरत है, वहीँ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इस गंभीर एवं तथ्यपूर्ण मामले को जिस तरह से कोर्ट द्वारा ख़ारिज किया गया है, उससे रेलवे के लाखों अधिकारियों और कर्मचारियों को घोर निराशा हुई है. इसके अलावा उस दिन रेलवे बोर्ड के वकीलों ने जिस तरह याचिकाकर्ता का चरित्र हनन करने की कोशिश की, वह एक बार फिर विवेक सहाय की कुत्सित एवं घृणित मानसिकता का द्योतक बन गई. हमें बखूबी मालूम है कि मुंबई की एक 'मोटी और चरित्रहीन' मगर तथाकथित अंग्रेजीदां महिला पत्रकार के माध्यम से माटुंगा वर्कशाप के एक लबलबहे एसएसई से एक पेपर कटिंग मंगवाकर विवेक सहाय ने रेलवे बोर्ड के वकीलों को उसे याचिकाकर्ता के खिलाफ 'मजबूत सबूत' के तौर पर दिया था, जिसका हवाला वे कोर्ट में दे रहे थे. हालाँकि कोर्ट ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, मगर यदि कोर्ट ने ध्यान दिया भी होता, तो भी विवेक सहाय और रेलवे बोर्ड के वकील याचिकाकर्ता के खिलाफ कुछ भी साबित नहीं कर पाते. बहरहाल, पीएमओ, डीओपीटी और सीवीसी तथा महातिकड़मी विवेक सहाय के सामने याचिकाकर्ता की हैसियत नगण्य है, मगर फिर भी इस याचिका के कारण सर्वप्रथम विवेक सहाय को सेवा विस्तार नहीं मिल पाया और तत्पश्चात सेवानिवृत्ति के पहले और बाद में भी उन्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिला, यह एक संतोष की बात है. तथापि जिस तरह इस गंभीर एवं तथ्यपूर्ण याचिका को ख़ारिज किया या कराया गया है, उसे ध्यान में रखते हुए इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की तैयारी की जा रही है. 

आखिर हुई 11 नए जीएम्स की पोस्टिंग 

रेलवे बोर्ड के बाबुओं को कब आएगी सदबुद्धि


नयी दिल्ली : आखिर करीब 10 महीने के बाद 13 जीएम्स की पोस्टिंग्स के आदेश रेलवे बोर्ड ने बुधवार, 9 नवम्बर की शाम करीब 6 बजे जारी कर दिए. इस प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री ने मंगलवार, 8 नवम्बर को सुबह 11 बजे अपने हस्ताक्षर कर दिए थे. बुधवार, 9 नवम्बर को दोपहर बाद डीओपीटी से बोर्ड पहुंची इस फ़ाइल पर आनन्-फानन कार्रवाई करते हुए बोर्ड ने तुरंत सभी 13 जीएम्स के पोस्टिंग आर्डर सिर्फ इसलिए जारी कर दिए, चूँकि अगले दिन गुरुवार, 10 नवम्बर को गुरु नानक जयंती की राष्ट्रीय छुट्टी थी, इसलिए किसी संभावित अधिकारी द्वारा इसको कोर्ट में चुनौती देकर स्टे आर्डर ले लिए जाने की भी बोर्ड को कोई आशंका नहीं थी. इसके अलावा यहाँ यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि ममता बनर्जी की ब्लैकमेलिंग के सामने एक बार फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हथियार डाल दिए. वरना कोई कारण नहीं था कि करीब एक महीने पहले लिए गए अपने ही निर्णय को नजरअंदाज करते हुए वह इन पोस्टिंग प्रस्तावों पर इस तरह हड़बड़ी में हस्ताक्षर कर देते? उल्लेखनीय है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि पर सरकार से अपना समर्थन वापस लेने की ममता बनर्जी की धमकी प्रधानमंत्री द्वारा जीएम्स की पोस्टिंग के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते ही 'आगे से उनसे पूछे बिना कीमतें नहीं बढाए जाने' के सुर में बदल गई. बहरहाल, आर्डर मिलते ही सभी 13 अधिकारियों ने अपना-अपना पदभार संभाल लिया है. जैसा कि 'रेलवे समाचार' ने पहले प्रकाशित किया था, दो लेटरल ट्रांसफ़र के साथ नए पदस्थ किए गए जीएम्स के नाम इस प्रकार हैं.. 

1. श्री राजीव भार्गव, आरडब्ल्यूएफ, बंगलौर. 2. श्री अभय खन्ना, आईसीएफ, पेरम्बूर. 3. श्री बी. एन. राजशेखर, आरसीएफ, कपूरथला. 4. श्री सुबोध कुमार जैन, म. रे., सीएसटी, मुंबई. 5. श्री अरुणेन्द्र कुमार, द. पू. म. रे., बिलासपुर. 6. श्री महेश कुमार, प. रे., चर्चगेट मुंबई. 7. श्री ए. के. वर्मा, द. पू. रे., गार्डेन रीच, कोलकाता. 8. श्री जी. सी. अग्रवाल, पू. रे., फेयरली प्लेस, कोलकाता. 9. श्री एस. वी. आर्य, प. म. रे., जबलपुर. 10. श्री इन्द्र घोष, पू. त. रे., भुवनेश्वर. 11. श्री जगदेव कालिया, आरई/कोर, इलाहबाद. 12. श्री वरुण बर्थुआर, पू. रे. से पू. म. रे., हाजीपुर. 13. श्री जी. एन. अस्थाना, प. म. रे. से द. म. रे., सिकंदराबाद. 

प्राप्त जानकारी के अनुसार श्री राजीव भार्गव ने आरडब्ल्यूएफ, बंगलौर में ज्वाइन नहीं किया है. ज्ञातव्य है की 7 अक्तूबर को प्रधानमंत्री ने श्री भार्गव को वर्ष 2008-09 के जीएम पैनल में पुनर्स्थापित करते हुए उन्हें ओपन लाइन के लिए फिट कर दिया था, जिसके अनुरूप उनकी पोस्टिंग कम से कम ओपन लाइन जीएम के तौर पर होनी चाहिए थी. मगर ममता बनर्जी की ब्लैकमेलिंग के सामने मजबूर प्रधानमंत्री ने अपने ही निर्णय को नजरअंदाज करते हुए बोर्ड द्वारा भेजे गए पोस्टिंग प्रस्ताव पर ज्यों का त्यों हस्ताक्षर कर दिया. जबकि उन्होंने रेलमंत्री के निर्णय को ओवर रूल करते हुए अपना यह निर्णय लिया था. ऐसे सिद्धांतविहीन प्रधानमंत्री से क्या उम्मीद की जा सकती है जो अपनी पार्टी की राजनीतिक मजबूरियों के सामने नतमस्तक होकर अपने द्वारा ही किए गए न्याय को अन्याय में बदल देने में भी कोई देर नहीं लगाता है? ऐसे प्रधानमंत्री से सीआरबी और डीपीसी तथा एसीसी के खिलाफ कोई स्ट्रक्चर पास किए जाने और उन्हें टेकअप किए जाने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है? इसके साथ ही जो रेलमंत्री बार-बार एक ही गलती को दोहरा रहा हो, उससे भी किसी न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. 

इसके अलावा जिन विनय मित्तल को सीआरबी बनाने का प्रस्ताव तक रेलवे बोर्ड ने नहीं भेजा था, नियम के हिसाब से कैबिनेट सेक्रेटरी ने उन्हें सीआरबी बनाया, मगर अब वह भी कैबिनेट सेक्रेटरी की बात नहीं मान रहे हैं और उन्हें धोखा देने पर उतर आए हैं. ऐसा लगता है कि खैरात में मिली सीआरबी की पोस्ट पर विराजमान श्री मित्तल एक मामूली क्लर्क या खलासी बनकर रह गए हैं, क्योंकि उन्हें यह भी समझ में नहीं आता है कि नियमानुसार जूनियर को ओपन लाइन और सीनियर को प्रोडक्शन यूनिट में नहीं भेजा जा सकता है. हालाँकि ये बात अलग है कि पिछले तीन साल से रेलवे बोर्ड और भारतीय रेल में कोई नियम-नीति रह ही नहीं गई है. तथापि इस मसले का हल वर्ष 2008-09 के पैनल से पदस्थ हुए सबसे जूनियर जीएम को एक महीने की छुट्टी पर भेजकर उसकी जगह श्री भार्गव को एक महीने के लिए पदस्थ करके सामान्य तौर पर किया जा सकता था, जैसा कि अधिकारियों को एडजस्ट करने के लिए अब अक्सर होता रहता है.. इसके बाद श्री भार्गव को अन्य किसी रेलवे में लेटरल ट्रान्सफर करके सारी स्थिति को सामान्य किया जा सकता था. मगर ऐसा तो तब होता है जब रेलवे बोर्ड में स्वस्थ मानसिकता के बाबू लोग बैठे हों, जबकि यहाँ तो वे अब अहसान फरामोशी पर उतारू हो गए हैं. 

रेलवे बोर्ड द्वारा मीडिया को जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति में जीएम्स की पोस्टिंग करवाने का श्रेय रेलमंत्री श्री दिनेश त्रिवेदी को दिया गया है. अब यह प्रेस विज्ञप्ति जारी करने वाले 'चारणों' को कौन समझाए कि उनको यह श्रेय तो तब होता जब चार महीने पहले रेलमंत्री का पद भार सँभालने के फ़ौरन बाद उन्होंने जीएम्स की यह पोस्टिंग्स करवा दी होतीं. वस्तुस्थिति यह है कि श्री त्रिवेदी पर्याप्त रूप से काबिल होने के बावजूद ममता बनर्जी की छाया मात्र बनकर रह गए हैं, क्योंकि सच्चाई यह है कि आज भी रेल सम्बन्धी सारे फैसले ममता बनर्जी ही ले रही हैं. स्थिति यह है कि पच्शिम बंगाल में दर्जनों गाड़ियों का उदघाटन रोज़ हो रहा है, मगर रेलमंत्री वहां मंच पर सिर्फ एक शो-पीस की तरह उपस्थित होते हैं, जबकि गाड़ियों का उदघाटन और भाषण ममता बनर्जी करती हैं. तभी तो भारतीय रेल मरणासन्न स्थिति में पहुँच रही है. इसीलिए तो अब सारे रेल अधिकारी और कर्मचारीगण ईश्वर से यह प्रार्थना करने लगे हैं कि वह रेलवे बोर्ड के बाबुओं को थोड़ी सद्बुद्धि दे, जिससे वे अपने राजनीतिक स्वार्थ छोड़कर रेल को बचाने पर अपनी सारी काबिलियत का इस्तेमाल कर सकें.